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माँ, मैं जीना चाहती हूँ ….

नई सोच का नया दायरा
नई सोच का नया दायरा
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tears

माँ मैं जीना चाहती हूँ ,

अपने जिस्म पर लगी खरोंचों को
हिम्मत के मरहम से सीना चाहती हूँ ,माँ ..
माँ मैं जीना चाहती हूँ .

माँ बाहर की दुनिया मुझसे नफरत नहीं प्यार कर रही  है ,
मुझे न जानते हुए भी मेरे लिए प्रार्थना कर रही है .
भले ही आज मेरे शरीर में आंतें क्या ,
लहू का हर कतरा भी बह जाये ,
मैं दरिंदगी के विरुद्ध
आज आवाज़ उठाना चाहती हूँ ,माँ …
माँ मैं जीना चाहती हूँ .

माँ तुम मेरे सिरहाने के पास
सिसकियाँ  ना भरो ,मुझे दर्द होता है .
मैं तुम्हारे बहते आंसुओं का हिसाब
अब उन वैहशी दरिंदों से लेना चाहती हूँ ..माँ …
माँ मैं जीना चाहती हूँ .

पिता जी जो चश्मा उठाकर बार -बार आँखों को मल  रहे हैं  ,
अपनी बेटी की हालत को देख ,जिनके आंसू नहीं  संभल रहे हैं ,
मेरे सामने आते ही चेहरे के भाव शांति में बदल रहे हैं ,
मैं उनके मन की चिंताओं को अपने सर लेना चाहती हूँ ,
उन्हें पहले सा मुस्कराता देखना चाहती हूँ .माँ ….
माँ मैं जीना चाहती हूँ .

मेरा दोस्त मेरे सामने खड़ा मुझे देख रहा था ,
बोलना कुछ चाहता था ,कुछ और ही बोल रहा था ,
उसकी ख़ामोशी और आँखों की नमी सब बयां कर रही थी .
मैं भी चुप थी ,बस देख रही थी .

मेरी पलकों में थोड़ी ओस की बूँदें झिलमिलाई,
उसकी दिखती छवि अब धुंदली सी हो आई ,
हम दोनों जानते थे की हमने क्या कहा और क्या  सहा ,
दोनों की किस्मत कुछ यूँ रूठी  के आज पास कुछ न रहा .
मैं अपने उस दोस्त की वो चुप्पी तोडना चाहती हूँ ,
उसे पहले की तरह बोलते देखना चाहती हूँ ,माँ …
मैं जीना चाहती हूँ .

आज इतना साहस न जाने मुझमे कहाँ से आया ,
मेरी आँतों से मजबूत भगवान् ने मेरा हृदय बनाया ,
शायद मेरा भाग्य भी विधाता ने फुर्सत में बनाया ,
ये कैसा भारत की बेटी होने का गौरव मैंने  पाया ?
किसे कोसूं !….. अपनी इस हालत के लिए ?
ये प्रश्नचिन्ह न जाने कहाँ से आज  मेरे समक्ष उठ आया .
फिर भी मैं इस जीवन की जंग में जीतना चाहती हूँ ,
परिवर्तन की आशा में
इस समाज द्वारा दिए गए  जहर को भी आज
मैं  हस हस कर पीना चाहती हूँ …माँ …
माँ मैं जीना चाहती हूँ ….माँ मैं जीना चाहती हूँ ….


damini
…..श्रुति मोहन

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